मोक्ष का मार्ग
कुमारिल के अनुसार वेदांत का अध्ययन एवं चिंतन मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा का शरीर, इंद्रिय, बुद्धि तथा संसार की वस्तुओं से संबंध सदा के लिए समाप्त हो जाता है। आत्मा दुःख से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। उस अवस्था में सुख की भी कोई अनुभूति नहीं रहती। यह पूर्ण स्वतंत्रता तथा शांति की अवस्था है। पंच भौतिक तत्वों के साथ संयुक्त आत्मा के लिये लगभग इसी अवस्था को गीता में भगवान ने स्थितप्रज्ञ या दिव्य चेतना की अवस्था कहा है।
मनुष्येतर प्राणियों में आहार ,निंद्रा एवं मैथुन ही कर्म के पर्याय है क्योंकि वह भोग योनि है, जहां आत्मा अपने प्रारब्ध कर्मों के भोग हेतु जन्म लेता है। केवल मनुष्य को ही प्रारब्ध कर्मों के भोग के अलावा नए सत्कर्म कर पुण्य अर्जित करने के अवसर है। अर्थात मोक्ष का मार्ग मनुष्य योनि से प्रारंभ होता है। मानव जन्म मोक्ष का द्वार है।
पंच भौतिक शरीर से बद्ध होने पर आत्मा प्रकृति द्वारा निर्धारित निश्चित आयु प्राप्त शरीर के रूप में व्यक्त होता है। परंतु इस अवस्था में भी आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर से आवृत्त होता है। व्यक्त शरीर के रूप में प्राणी द्वारा किए समस्त कर्म इस सूक्ष्म शरीर में रिकार्ड होते है। सूक्ष्म शरीर सहित आत्मा द्वारा भौतिक शरीर के त्याग को मृत्यु कहते है। सूक्ष्म शरीर में दर्ज अच्छे एवं बुरे कर्म सदैव प्राणी के साथ रहते है। एवं इन कर्मों का फल उसे तब तक भोगना पड़ता है जब तक ये पूर्णतया निःशेष नहीं हो जाते। अच्छे एवं बुरे कर्म अर्जित करने का साधन यह भौतिक शरीर है। जिस प्रकार धन कमाने के लिये व्यक्ति अच्छी नौकरी या अन्य व्यवसाय की कामना करता है। उसी प्रकार पुण्य कर्म अर्जित करने के लिये देव लोक वासी, देवता भी मानव शरीर प्राप्त करने की कामना करते है। मानव शरीर प्राप्त करने पर भी व्यक्ति के कर्म प्रायः पूर्व जन्म के संचित कर्मों से प्रभावित होते है। संचित कर्म जो उसके स्वभाव का निर्माण करते है यह स्वभाव प्रकृति के तीनों गुणों सतोगुण रजोगुण या तमोगुण के आधार पर निर्मित होता है।
सतोगुणी व्यक्तियों में पाए जाने वाले गुणों की विवेचना गीता के अध्याय सोलह में प्रथम तीन श्लोकों में छब्बीस दिव्य गुणों के रूप में गई है। उनमें यज्ञ दान त्याग आत्म शुद्धि धैर्य तप सत्य अहिंसा अक्रोध करुणा आदि प्रमुख है। धर्म के लगभग यही लक्षण मनु स्मृति में भी बताए गए है। बुद्ध द्वारा शील-समाधि-प्रज्ञा वाला आठ अंगों में विस्तारित, आर्य आष्टांगिक मार्ग, भावों की दृष्टि से गीता में उपदेशित दिव्य गुणों एवं मनु स्मृति में वर्णित धर्म के लक्षणों से पर्याप्त समानता रखता है। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। और गीता [16.5] के अनुसार मोक्ष के अभिलाषी के लिये उक्त दिव्य गुण अनुकूल है। इन्हें अपने आचरण का अंग बनाना चाहिये। इन गुणों के विपरीत आचरण रजोगुण एवं तमोगुण के प्रभाव से होते है। यह मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। सात्विक मनोवृत्ति में स्थित होने पर व्यष्टि पर समष्टि की प्रधानता स्वत: हो जाती है। परंतु रजोगुण एवं तमोगुण में स्थित होने पर व्यक्ति का आचरण इसके ठीक विपरीत होने के साथ उसमें उपरोक्त वर्णित दिव्य गुणों की न्यूनता अथवा पूर्णतया अभाव रहता है। परमात्मा का अंश यह आत्मा, पंच भौतिक प्रकृति से बद्ध होने पर अज्ञानवश प्रकृति के रजोगुण एवं तमोगुण से प्रभावित होकर परमात्मा से अपनी संबद्धता को विस्मृत कर बैठता है।
सत्संग, स्वाध्याय एवं सद्गुरु की प्रेरणा से ज्ञान प्राप्त कर रजोगुण एवं तमोगुण से प्रभावित स्वभाव को परिवर्तित कर इसकी दिशा सत्कर्मों की और मोड़ी जा सकती है। सतोगुण में स्थित व्यक्ति के समस्त कर्तव्य कर्म, फल की आशा न रख किए जाते हे। फलाकांक्षा से रहित कर्तव्य पथ पर आरूढ़ व्यक्ति का, कायमनोवाक्य द्वारा संयमित आचरण ही गीता में मन वाणी और शरीर का तप कहा गया है।
पूज्य जनों का आदर पवित्रता ब्रह्मचर्य अहिंसा आदि शास्त्र सम्मत श्रेष्ठ गुण एवं फल की इच्छा से रहित लोक कल्याणार्थ किए कर्तव्य कर्म सात्विक कर्म होते है। यही यज्ञ रूप कर्म है। गीता में इसे शारीरिक तप कहा है। [गीता 17.14]
कर्ण प्रिय होने के साथ शास्त्र सम्मत, समाज के लियेा कल्याणकारी सत्य वचन एवं वेदों का नियमित पारायण ही वाणी का तप है। [गीता17.15]
स्वाध्याय एवं आत्म साक्षात्कार द्वारा निष्कपट व्यवहार के रूप में आत्म संयम एवं मन की शुद्धि ही मन का तप है।[गीता17.16]
श्रद्धा के अभाव में स्वार्थ पूर्ति हेतु किया गया यज्ञ दान तप आदि कर्म असत् है ये सभी कर्म आध्यात्मिक उंचाई प्राप्त करने के लिये किए जाना चाहिये।[गीता 17.28]
गीता के सत्रहवें अध्याय में मन वाणी और शरीर से की गई उपरोक्त तपस्या का नियमन ॐ तत् सत् मंत्र में किया गया है । सभी श्रेणी के कर्तव्य कर्म का निष्पादन प्रकृति के तीनों गुणों से मुक्त भौतिक कामनाओं से रहित होकर आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्य से योग्य गुरु के निर्देशन में सर्वव्यापी परमात्मा के लिये करने का आदेश भगवान देते है। यही वह अवस्था है जिसमें प्रकृति के तीनों गुणों से परे निर्विकार भाव से श्रीकृष्ण के लिये कार्य कर रहे प्राणी के लिये मोक्ष का द्वारा खुल रहा होता है। क्योंकि उसका प्रत्येक कर्म ॐ तत् सत् जो कि परमात्मा का त्रिगुणात्मक नाम है के लिये हो रहा होता है।
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