संशय की अवस्था मे गीता की शरण लें

प्रचलित लोकोक्ति है ‘’भगवान के यहां देर हे अंधेर नही’’ वास्तव मे वहां ना देर है ना अंधेर ,फल प्राप्ति मे होने वाला विलंब एवं अंधेर का भ्रम उत्पन्न करती मनोवांछित फल की अप्राप्ति, दोनों ही हमारे प्रयासों मे एकाग्रता के अभाव का प्रतिफल है। यह अभाव प्रयास एवं प्रतिफल दोनो को लेकर असमंजस के कारण होता है। और असमंजस सकाम भाव का परिणाम है।

कामना रहित कर्म मे फलचिंतन नही होता अत: प्रतिफल के प्रति संदेह महत्वहीन होने से कर्म के प्रति एकाग्रता भंग नही होती। अपने कर्म के प्रति निष्ठा एवं एकाग्रता मे कमी उस कर्म यज्ञ के प्रसाद रूपी प्रतिफल की प्राप्ति मे विलंब अथवा अप्राप्ति का मुख्य कारण है। भवितव्य की अटलता के कारण कर्म के औचित्य को लेकर सामान्य लोगों मे प्राय: उत्पन्न संदेह का समाधान भी यही निष्काम कर्म की अवधारणा है। कामना रहित कर्म की अवस्था मे प्रतिकूल प्रतिफल की अविचलता को जानकर भी कर्म प्रेरणा अप्रभावित रहकर आंशिक रूप से सकारात्मक परिणाम देती है। इसलिये भगवान कृष्ण ने युद्ध क्षेत्र मे अर्जुन को समभाव से निष्काम कर्म करने हेतु गीता उपदेश दिया। [2/38]। क्योंकि स्वजनों के मोह वश उनके जीवन की कामना उसके अवचेतन मे होने के कारण युद्ध उसके लिये क्षत्रियोचित कर्तव्य कर्म ना रहकर सकाम कर्म बन गया था इसलिये युद्ध के उद्देश्य व परिणम को लेकर भी वह आशंकित था। [गीता2/6] सकाम कर्म का अनिवार्य अंग फलचिंतन है जो विकल्पों को जन्म देता हे। और विकल्पों की उपलब्धता अनिर्णय के कारण एकाग्रता भंग करती है।




महात्मा चाणक्य ने नितांत विपरीत परिस्थितियों मे भी सीमित साधनों द्वारा अत्याचारी शासन को उखाड़ कर धर्म और न्याय के शासन की स्थापना मे सफलता पाई थी क्योंकि भगवान कृष्ण की ही भांति उनका भी एक मात्र लक्ष्य भारत मे धर्म स्थापना था इसे उन्होने अखण्ड भारत के माध्यम से साकार किया। निजी हित रूपी सकाम भाव ना होने से उन्होने लक्ष्य से भटकाने वाले अन्य विकल्पों पर विचार नही किया । कर्मफल ईश्वरार्पण कर वे धर्मानुकूल परिणामों के प्रति आश्वस्त थे। यही आश्वस्ति शस्त्र त्याग जेसे विकल्प के बजाय बुद्धि को लक्ष्य पर स्थिर करती है। दोनों महान चरित्रों के जीवन के कार्य कर्म के प्रति एकाग्रता द्वारा उद्देश्य सिद्धी का प्रमाण है। अर्जुन के मस्तिष्क मे परिणामों को लेकर दुविधा [गीता 2/6] इस एकाग्रता के मार्ग की प्रमुख बाधा थी। विराट रूप दिखा कर श्रीकृष्ण द्वारा उसे आश्वस्त करना कि ये सब मेरे द्वारा मारे जा चुके हे तू केवल निमित्त है, श्रीकृष्ण अर्जुन के परिणाम के प्रति संदेह को निर्मूल करते हैं। एकमात्र विकल्प होने पर लक्ष्य स्पष्ट होता है एकाधिक विकल्प असमंजस उत्पन्न कर व्यक्ति को लक्ष्य से विचलित करते है। यह भ्रम की अवस्था है जो संकल्प की दृढ़ता के अभाव को दर्शाती है।

गीता के अनुसार निष्काम कर्म, कर्म बंधन से मुक्ति अर्थात मोक्ष का कारक होने के साथ मन की एकाग्रता अर्थात स्थिर बुद्धि का भी प्रेरक तत्व हे। ‘बहुशाख ही अनन्ताश्च बुद्धय: ‘ [गीता2/41] अर्थात विभाजित बुद्धि संकल्प की दृढ़ता के अभाव का परिणाम है। इसका मुख्य कारण सकाम भाव है। निष्काम भाव संकल्प को दृढ़ता एवं बुद्धि को स्थिरता प्रदान करता है। सकाम कर्म मे एकाधिक विकल्पों की उपलब्धता मन की एकाग्रता भंग करती है, यही अस्थिर बुद्धि का लक्षण है। कर्तव्य को लेकर इसी विभाजित बुद्धि से ग्रस्त अर्जुन उहापोह की स्थिति मे भगवान से कहता है ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ अर्थात मे आपकी शरण मे हूं मुझे उपदेश दीजिये।

श्रीकृष्ण उसे मोह बंधन से मुक्त हो कर्तव्य पालन हेतु कर्मयोग का उपदेश देते है। किंकर्तव्यविमुढ़ता की स्थिति मे श्रीकृष्ण की शरण लेकर अर्जुन ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। आज भी सामान्य व्यक्ति को एसी दुविधा ग्रस्त अवस्था मे श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष रूप श्रीमद्भगवदगीता की शरण लेना श्रेयस्कर है।

– सुभाषचन्द्र जोशी
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