राष्ट्रीय हिंदी दिवस 14 सितंबर विशेष
राजनैतिक दृष्टि से हमारी भाषा मुस्लिम काल मे ही परित्यक्त हो चुकी थी। अंग्रेजी शासन मे आंग्ल भाषा के प्रचलन ने इसके बचे हुए वर्चस्व को भी भारी हानि पहुँचाई। साहित्यिक दृष्टि से हिंदी भाषा का वर्तमान स्वरूप एवं खड़ी बोली हिंदी मे गद्य एवं पद्य साहित्य सृजन भारतेंदू हरिश चन्द्र की देन है, पहले गद्य रचना से आरंभ होकर बाद मे हिंदी, काव्य रचना की भी भाषा बनी। इसके पूर्व ब्रज भाषा काव्य सृजन की मुख्य भाषा थी। और भी पीछे प्राचीन युग मे यह स्थान संस्कृत को प्राप्त था। किसी भी भाषा की समृद्धि को मापने का पेमाना उसमे रचा गया साहित्य एवं उसका शब्द भंडार होता है। भाषा का शब्द भंडार एवं उसका साहित्य एक दूसरे को समृद्ध करते है। हिन्दी भाषा की शुद्धता के आग्रही विद्वानों द्वारा इस संदर्भ मे व्यक्त विचार अनुसार सामान्य बोलचाल मे प्रयुक्त अन्य भाषाओं के शब्दों की साहित्य सृजन मे स्वीकार्यता हिन्दी भाषा की अशुद्धि का कारण बनती है।
परंतु एक दृष्टिकोण यह भी है कि हिन्दी मे विलय होकर हिन्दी परिवार के अंग बन चुके ऐसे शब्द हिन्दी को अशुद्ध नही अपितु इसके शब्द भंडार को समृद्ध करते है। सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है जो भारत की मूल भाषा है। विश्व की सभी समृद्ध भाषाओं मे संस्कृत सहित अन्य भाषाओं के न्यूनाधिक शब्द पाए जाते है इससे वे भाषाएं अशुद्ध नही होती। जिस प्रकार जन जन की आस्था का प्रतीक एवं भगवान विष्णु के चरणों से निसृत त्रिपुरारी की जटा पर विश्राम कर आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर अवतरित भगवती भागीरथी की मूल रूप मे गंगोत्री हिमनद से आरंभ अमृतमय वारि धारा अपने लक्ष्य सागर से मिलन के पूर्व सैंकड़ों नदी नालों को आत्मसात् कर उन्हे पवित्र गंगा का रूप दे शुद्ध कर देती है। गंगा मे मिलते ही इन नदी नालों की अशुद्धि इनके अस्तित्व के साथ समाप्त हो जाती है, ओर इन नदी नालों का जल केवल गंगा जल बन जाता है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति एवं भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी दोनों ही गंगा का रूप है। जिस तरह पिछले हजारों वर्षों मे भारत आइ इण्डोबेक्ट्रियन एइण्डोपर्शियन हूंण कुषाण आदि विदेशी जातियाँ भारतीय समाज मे विलीन होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर भारतीय समाज का अंग बन गई, उसी भांति हिन्दी मे भी तत्सम तद्भव देशज. विदेशज आदि सभी श्रेणियों के अनेक भाषाओं के शब्द हिन्दी मे समाहित होकर हिन्दी बन चुके है।
इन्हे हिन्दी के रूप मे ही स्वीकार किया जाना चाहिये इसी मे भारतीय संस्कृति का सनातन सौदर्य है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों की बोलियों मे प्रचलित शब्दों की सुगंध वर्तमान हिंदी के पितृ पुरूष कहलाने वाले भारतेंदू जी के सहित्य मे भी महसूस की जा सकती है। नागरीप्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित शब्द सागर में हिन्दी के लगभग ढाई लाख शब्दों का समावेश है इनमें कई भाषाओं एवं इनकी उप भाषाओं जिन्हे स्थानीय बोलियाँ कहा जाता है के हिन्दी मे प्रचलित हो गए शब्द लिये गए है जो अब हिन्दी का अंग है। हिन्दी की यह उदारता उसे सार्वभौमिक स्वरूप देकर अन्य भाषा-भाषियों मे स्वीकार्यता प्रदान करेगी।
महाकाव्य रामचरित मानस मे महात्मा तुलसी दास आत्मा और परमात्मा के संदर्भ मे लिखते है :
सुरसरी जल कृत बारूनि जाना। कबहुं न संत करहि तेहि पाना।
सुरसरि मिलें सो पावन जैसे । ईस अनीसहिं अंतरू जैसे।
अर्थात् गंगा जल की बनाई मदिरा भी संत लोग पान नही करते, परंतु गंगा मे मदिरा मिलाने पर वह पवित्र होकर गंगा जल बन जाती है। भाषा के संदर्भ मे भी यही सत्य है।
हिन्दी भी वह गंगा है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को अपना कर उन्हे भारत की राज भाषा जिसे तीसरी विश्व भाषा का दर्जा प्राप्त है का अंग बनने का गौरव प्रदान करती है।
सुभाष चन्द्र जोशी
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