काना फुसी

दुनिया विशाल है, यह तो ईश्वर का कमाल है किन्तु इस विशाल दुनिया में  इन्सान के पास कानाफुसी के कई विषय हैं। किसी भी गाँव,नगर या शहर में  सामाजिक या व्यक्तिगत आयोजन हो, फुर्सत के क्षणों में बैठे बैठे उनमें से एक मेहमान अपनी वाणी की कमान से प्रश्नों के तीर छोडना शुरू करता हैं ? आपस में कानाफूसी शुरू हो जाती है। उन पर लम्बी बहस छिड कर अन्त में सब हाथ मलते रह जाते हैं और अपने अमूल्य समय को नष्ट कर देते है।प्रश्न, समाज हमारे लिये कुछ नहीं करता ? समाज में रखा क्या है ? हम समाज की क्यों माने ? सामूहिक आयोजनों में बड़े लोग अपनी भागीदारी नहीं निभाते ? विधवा और परित्यक्त महिलाओं की स्थिति पर कोई विचार ही नहीं करता। समाज में कुरीतियाँ बढ़ती जा रही है उन्हे समाप्त करना चाहिए ? मृत्यु भोज बन्द होना चाहिये ? मामेरा प्रथा और दहेज प्रथा पर अंकुश लगाना चाहिए ? दहेज में टू व्हीलर की जगह अब फोर व्हीलर दी जा रही  है? ऐसे कई समाज सुधार के  प्रश्नों का अंबार लग जाता है और उन पर काना फुसी होकर  बहस बेदम हो जाती है।


जब प्रश्न उछले हैं तो कोई न कोई जवाब तो आयेगा ही। छोड़ो यार समाज वमाज की बात आजकल समाज है ही कहाँ ? दूसरा उत्तर अपने समाज के लिये क्या किया जो समाज आपकी फिक्र करेगा। तीसरा उत्तर समाज के बिना कोई काम चल ही नहीं सकता। जन्म,जीवन और मौत तीनों समय समाज ही काम आता है। बीच में ही बात काट कर  कहा सामाजिक आयोजनों में बड़ों बड़ों  को ही मंच पर बिठाते है जो कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और हैं।

सदियों से ऐसे प्रश्न उछल रहे है। काना फुसी से प्रारम्भ होकर बहस का रूप भी लेते है और अंत में इनका समाधान नहीं निकल पाता है। मंच पर  जो सम्मानित सदस्य विराजित होते है वे अपनी बारी आने पर मृत्यु भोज, दहेज मामेरा प्रथा, विधवा विधुर, परित्यक्ता विवाह, बच्चियों के लिए जिला स्तर पर होस्टल बनाना जैसे अनेक विषयों की फुलझड़ी छोडते और बस उपस्थित जन समुदाय की ताली बटोर कर मंच पर बैठ जाते हैं। उपस्थित समुदाय में तत्काल कानाफूसी शुरू हो जाती है, देखा मंच नीचे उतरते ही सब छोड गये गुब्बारे हवा में ही फुट जायेगें।समाज में लम्बे समय से मंच,माइक के साथ वही सम्मानित लोग विराजित होते है जो शब्दों के जाल में समाज को लपेट लेते है। कुछ सामाजिक सक्रिय  सदस्य  इन कुप्रथाओं को कम करने का प्रयास कर भी रहे हैं किन्तु उन्हे सहयोग नहीं मिल रहा है।



ऐसे प्रश्न काना फुसी से शुरू होकर बहस में बदल जाते है और अनिर्णीत अवस्था में दम तोड रहे हैं। अन्तिम चर्चा यही होती है कि सबके अपने अपने व्यक्तिगत कार्य होने से वो जैसे चाहे करे हमें क्या लेना देना।

यहॉ परिचय सम्मेलन की चर्चा करना अति आवश्यक है जिसने प्रारम्भ में कई उतार चढाव देखे, इसे बन्द कर देने का भी प्रयास हुआ किन्तु समाज कल्याण के उद्देश्य से जो कार्य होते हैं वे स्वतः सबल हो जाते है और आज देश विदेश के समाज जन इसका लाभ उठा रहे है और प्रशंसा भी कर रहे हैं। तहसील स्तर पर सामूहिक विवाह के आयोजन भी सम्पन्न हो रहे हैं।शब्दों के जाल,मंच की महिमा,माइक की गर्जना  से हटकर यदि थोडा सा भी मजबूत प्रयास होगा तो काना फूसी बंद होकर समाज कुप्रथाओं से मुक्त हो सकेगा। बस यहां हमें छोटे बडे की चर्चा करने बजाय छोटे छोटे ही एक होगे तो बड़ी ताकत बन जायेगी।

राल्फ वाल्डो इमर्सन ने कहा है कि-वहाँ न जाए जहां राह ले जाए,वहां जाए जहां राह न हो और वहां अपनी छाप छोड़ आएं।

  • शरद त्रिवेदी, उज्‍जैन