अपने शैशव काल मे सिनेमा और टीवी मनोरंजन के साथ नैतिकता का संदेश एवं समाजोत्थान की प्रेरणा देते रचनात्मक भूमिका मे थे आज नैतिक पक्ष लगभग ग़ायब हो चुका है। भारत मे प्रतिवर्ष डेढ़ हजार से भी अधिक फिल्में एवं बड़ी संख्या मे टीवी सीरियल बनते है परंतु अधिकांश मे मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता एवं व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के लिये नग्नता परोसी जा रही है। प्रेम त्रिकोण और विवाहेतर संबंध अधिकांश टीवी श्रंखलाओं के निर्माता निर्देशकों का अति प्रिय फार्मूला है। जो माध्यम शिक्षा का एक रोचक एवं प्रभावी उपकरण हो सकता था उसे षड्यंत्र पूर्वक नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रसार का साधन बना दिया गया। कभी मान्यता थी कि सिनेमा समाज का दर्पण है अर्थात समाज मे व्याप्त प्रवृत्तियां एवं सामाजिक मान्यताएं ही सिनेमा की विषय वस्तु मे प्रतिबिम्बित होती थी। आज इससे सर्वथा विपरीत स्थिति है समाज सिनेमा के अनुकरण की और प्रवृत्त है। या इसे यों कहें कि सिनेमा समाज को भटकाने की और प्रवृत्त है। निरंतर संकुचित हो रहे तन ढकने के वस़्त्रों की सामाजिक स्वीकार्यता, लीव इन रिलेशन और समलेंगिक विवाह जैसी अनैतिक घटनाओं को सामाजिक मान्यता आदि परोसी जा रही दृश्य कथाओं के ही दुष्प्रभाव है।
रामानंद सागर निर्मित दूर दर्शन श्रंखला रामायण के प्रसारण के पश्चात विद्यालय मे पूछे गए प्रश्न की ”रामायण की रचना किसने की” पर मासूम बच्चे ने महर्षि वाल्मीकि के स्थान रामानंद सागर का नाम बताया था। यह इस माध्यम के सशक्त प्रभाव का परिचायक है। रामानंद सागर ने भक्तिभाव जाग्रत करने के लिये रामायण की रचना की थी। परंतु इससे उलट इस माध्यम का उपयोग कर फिल्म आदिपुरूष मे रामायण का जिस प्रकार मज़ाक बनाया गया है वह सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथ के प्रति नई पीढ़ी मे भक्ति भाव समाप्त करने के लिये जानबूझकर रची गई साज़िश है। सनातन धर्म के इन पूज्य चरित्रों की आधुनिक वेशभूषा मे प्रस्तुति इन चरित्रों को काल्पनिक सिद्ध करने का परोक्ष प्रयास है। सिनेमा वह माध्यम है जिसके नियंत्रित एवं विवेक पूर्ण उपयोग के अभाव मे संभावित दूरगामी परिणाम सनातन धर्म और परंपराओं के लिये अत्यंत हानिकारी सिद्ध होंगे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर थोपी जा रही मनमानी ने सर्वाधिक हानि सनातन संस्कृति को पहुँचाई है। इतिहास की मनगढ़ंत एवं विकृत प्रस्तुति के साथ साथ हमारे पवित्र धर्म ग्रंथों मे उल्लिखित चरित्रों की भ्रामक एवं विवादास्पद प्रस्तुतियों द्वारा आने वाली पीढ़ी को संशय ग्रस्त एवं दिग्भ्रमित कर सनातन धर्म से विरत करने का कुत्सित षड्यंत्र जारी है।
पश्चिम संस्कृति की बुराइयों की मिलावट से आकार ले रही नई संस्कृति वर्तमान से अधिक भावी पीढ़ी एवं सनातन भारतीय धर्मों के लिये ख्रतरनाक सिद्ध होगी। यह सत्य है कि मनोरंजन के लिये लिखी गई फिल्म की पटकथा मे कल्पना की प्रधानता होती है परंतु समाज के हित मे यह कल्पना भी सकारात्मक एवं यथार्थपरक हो यह फिल्म निर्माताओं का नैतिक उत्तरदायित्व है। सोशल मीडिया पर अश्लील वीडियो की भरमार बड़ी संख्या मे सामाजिक मानदंडों के विपरीत बन रही अश्लील वेब सीरीज पूरी युवा पीड़ी को तेज हीन बनाने पर आमादा है।
अत: सनातन संस्कृति एवं भारतीय परंपराओं की रक्षा के लिये सभी श्रेणी के दृश्य श्रव्य माध्यमों की स्वच्छंदता पर कठोर शासकीय नियंत्रण अत्यावश्यक है।
सुभाष चन्द्र जोशी
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