प्रथम स्वतंत्रता समर की नायिका रानी लक्ष्मीबाई

”गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी” महाराष्ट्रियन ब्राह्मण मोरोपंत ताम्बे और भागीरथी बाई की बेटी मणिकर्णिका जो विवाहोपरांत झांसी की रानी लक्ष्मी बाई कहलाई, के यशोगान मे लिखी सुभद्रा कुमारी चोहान की कविता झांसी की रानी की उपरोक्त पंक्तियों मे मनुष्य स्वभाव का वह यथार्थ छिपा है जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का वास्तविक मूल्य उसे खो देने के पश्चात ही ज्ञात होता है। मानव जीवन के सबसे अनमोल रत्न आज़ादी को प्राप्त करने से बढ़कर इसे संजोकर सुरक्षित रखना अधिक कठिन कार्य है जिसे संपन्न करने हेतु गीता उपदेश को इमानदारी से आचरण मे लाना अनिवार्य एवं श्रेयस्कर है क्योंकि द्वापर मे पांडव और कलयुग मे रानी लक्ष्मीबाई दोनो अपने जीवन मे एक जैसी परिस्थितियों से रूबरू हुए थे दोनो को औसत सुखमय जीवन और नैसर्गिक अधिकार व स्वतंत्रता मे से एक का चयन करना था, दोनो ने सम्मान पूर्ण जीवन को प्राथमिकता देकर अन्याय के विरूद्ध संघर्ष का मार्ग अपनाते हुए अंतिम विकल्प युद्ध का चयन किया। युद्ध क्षेत्र मे अर्जुन जब कहता है ‘ न राज्यं सुखानि च ‘ अर्थात स्वजनों की मृत्यु के मूल्य पर राज्य एवं सुखों की चाह नही तब वह देह सुख एवं राज्य के रूप मे भौतिक समृद्धि मे सुख देखता है।

वास्तव मे भौतिक समृद्धि और सम्मान पूर्ण स्वतंत्र जीवन दो अलग अलग विषय है। भौतिक समृद्धि के अभाव मे भी आज़ाद व्यक्ति आत्म सम्मान के साथ जीवन यापन कर सकता है परंतु पराधीन व्यक्ति का जीवन धन धान्य से संपन्न होने पर भी आत्म सम्मान के अभाव मे सुखमय नही कहा जा सकता। भौतिक समृद्धि और आत्म सम्मान दोनो ही सुखमय जीवन का आधार है इनकी प्राप्ति धर्म युक्त कर्म के बिना संभव नही।

श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षत्रिय धर्म के रूप मे उसका अनिवार्य कर्तव्य जो युद्ध के रूप मे सम्मुख था के पालन की प्रेरणा देकर उसे कर्मरत होने का आदेश देते है। श्री कृष्ण की कृपा से अर्जुन को स्मृति प्राप्त होती है और वह अपने कर्तव्य कर्म मे प्रवृत्त होता है। इस असमंजस से सभी लोग अपने जीवन मे रूबरू होते है। महारानी लक्ष्मी बाई ने भी स्वयं को ऐसे ही दौराहे पर खड़े पाया जब अंग्रेजों की हड़प नीति ने उन्हे झांसी का राज्य त्याग करने का आदेश दिया था यह वैसा ही है जैसे दुर्योधन ने युधिष्ठिर को अपना राज्याधिकार छोड़ने का आदेश दिया था। भगवान कृष्ण की प्रेरणा से युधिष्ठिर ने अंतिम विकल्प युद्ध का निर्णय लिया। रानी लक्ष्मीबाई द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध के निर्णय मे भी श्रीकृष्ण उपदेशित गीता की अन्याय के विरूद्ध अन्याय के विरूद्ध प्रतिकार की प्रेरणा स्पष्ट दिखाई देती है।

श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई अपना अधिकार ना छोड़ने की सलाह रानी लक्ष्मीबाई के जगत प्रसिद्ध नारे ” मे अपनी झांसी नही दूंगी ” मे प्रतिबिंबित होती है। इतिहास की इन दोनो ही घटनाओं मे भौतिक संमृद्धि पर स्वतंत्रता और आत्म सम्मान की प्रधानता सिद्ध होती है। क्योंकि पांडव अन्याय का प्रतिकार ना कर अपने बाहुबल से नया राज्य स्थापित कर भौतिक समृद्धि प्राप्त कर सकते थे। रानी लक्ष्मीबाई भी अन्याय को भुलाकर अंग्रेजों से पेंशन प्राप्ति का विकल्प चुन कर सुखी एवं समृद्ध जीवन व्यतीत कर सकती थी परंतु कृष्ण के उपदेशों से प्रेरित दोनो ने अधिकार और स्वतंत्रता को वरीयता देकर अन्याय के विरूद्ध युद्ध का विकल्प चुना और इतिहास मे अमर हुए। पांडव महाभारत युद्ध मे विजयी हुए थे परंतु श्री कृष्ण जैसा सलाहकार ना होने से रानी लक्ष्मीबाई को पराजय के साथ प्राणो की आहुति देना पड़ी। स्वतंत्रता के लिये बलिदान देकर रानी ने भारतवासियों को ना केवल आज़ादी के मूल्य से परिचय करवाया इसे प्राप्त करने के लिये संघर्ष एवं शहादत की प्रेरणा भी दी।


सुभाष चन्द्र जोशी
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